Friday, November 30, 2007

काश..











जैसा हूँ वैसा क्यूँ हूँ समझा सकता था मैं


तुमने पूछा तो होता, बतला सकता था मैं


आसूदा रहने की ख्वाहिश मार गई वरना


आगे और बोहत आगे तक जा सकता था मैं


छोटी मोटी एक लहर ही थी मेरी अन्दर


एक लहर से क्या तूफ़ान उठा सकता था में


कहीं कहीं से कुछ मिसरे, एक आध ग़ज़ल, कुछ
शेर


इस पूंजी पर कितना शोर मचा सकता था में


जैसे सब लिखते रहते हैं ग़ज़लें, नज्में,
गीत


वैसे लिख लिख कर अम्बार लगा सकता था मैं

Monday, October 15, 2007

भ्रम....

ऐसा लगता है ज़िन्दगी तुम हो
अजनबी कैसे अजनबी तुम हो
अब कोई आरजू नहीं बांकी
जुस्तजू मेरी आख़िरी तुम हो
मैं जमी पर घना अंधेरा हूँ
आसमानों की चांदनी तुम हो
दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें
किस ज़माने के आदमी तुम हो...?

फासले...

फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा ना था
सामने बैठा था मेरे और मेरा ना था
वो के खुशबू की तरह फैला था मेरे चारो ओर
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता ना था
रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही
झाक कर देखा गली में कोई भी आया नहीं था
खुद चढा रखे थे तन पर अजनबियत के गिलाफ
वर्ना कब एक दुसरे को हमने पहचाना नहीं था
याद कर के और भी तकलीफ होती थी
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा नहीं था ..........

तुम्हारे जाने के बाद…

तुम्हारे जाने के बाद,तुम्हारे आने के दिन गिनता हूँ,तारे तो खत्म हुए कब के,अब अपनी सासों के साथ तुम्हारी यादें गिनता हूँ।
एक छोटीसी तमन्नातुम्हें सीने से लगाये हुए,युँही बस लेटे रहनाअपनी धडकनों के साथ,तुम्हारीं सासों को महसूस करना,और आँखें बंद करके ये दुआ करना,के पल यें खत्म ना हो कभी…पर अब जब